आज पर्यावरण क्षरण की भयावहता का सवाल समूचे विश्व के लिए गंभीर चिंता का विषय है। इस चुनौती से निपटना आसान नहीं है। समूचे विश्व में इस चुनौती का मुकाबला करने की दिशा में हरसंभव कोशिशें जारी हैं। लेकिन इसके
बावजूद सफलता कोसों दूर है। संयुक्त राष्ट्र् महासचिव एंटोनियो गुतारेस की चिंता का अहम् कारण यही है। जहां तक हमारे देश का सवाल है हमारे यहां आज आमजन पर्यावरण के प्रति सजग तो हुआ है। लेकिन उसका प्रतिशत बहुत कम है। वह बात दीगर है कि पर्यावरण संरक्षण हेतु बच्चे सड़कों पर उतर रहे हैं। वे ग्लोबल डे ऑफ स्टूडेंट प्रोटेस्ट मनाकर पर्यावरण की सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सरकारों को कड़े कदम उठाने का संदेश दे रहे हैं। बीते दिनों दुनिया के 105 देशों के हजारों बच्चों ने पर्यावरण बचाने को लेकर कक्षाओं को छोड़कर हड़ताल की।
लंदन में 1000 स्कूली छात्रों ने सडक़ों पर पोस्टर लेकर हड़ताल की। हमारे यहां भी हजारों स्कूली बच्चों ने दिल्ली, कोलकाता, गुरुग्राम आदि अनेक नगरों-महानगरों में स्वच्छ हवा की मांग के साथ प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए वैश्विक मुहिम के तहत प्रदर्शन किया। बच्चों ने प्रदर्शन के दौरान डांस, भाषण और गीतों के माध्यम से पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक किया। छात्रों ने प्रदर्शन में पोस्टर, प्ले कार्ड की मदद से पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभावों को बताया और कहा कि जलवायु परिवर्तन के चरम सीमा में पहुंचने में अब केवल 12 साल ही बचे हैं। इसलिए यदि धरती को बचाना है तो जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को रोकने की दिशा में सख्ती से कदम उठाने होंगे। बच्चों के इस प्रयास की हमारे पर्यावरण सचिव माइकल ने भूरि-भूरि प्रशंसा की और एक वीडियो जारी कर कहा कि हम आपसे सहमत हैं। इस दिशा में सामूहिक कार्यवाही से ही कुछ नया हो सकता है, बदलाव हो सकता है। गौरतलब है कि दुनिया में भारत सहित दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और फ्रांस ही ऐसे देश हैं जहां के बच्चे पहले ही जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों से जनता को जागरूक कर रहे हैं।
चुनाव आयोग ने इस बार पर्यावरण के अनुकूल चुनाव प्रचार के मकसद से अपने सभी जिला अधिकारियों को प्लास्टिक का इस्तेमाल नहीं करने का जो निर्देश जारी किया है, वह सराहनीय ही नहीं प्रशंसनीय है। इसके लिए पर्यावरण मंत्रालय भी बधाई का पात्र है क्योंकि बीती 17 जनवरी को ही उसने चुनाव आयोग को एक चिट्ठी लिखी थी। उसमें कहा गया था कि चुनाव में पर्यावरण के अनुकूल चुनाव सामग्री का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। चुनाव सामग्री के चलते सीवर जाम होता है। उसे जलाने से उसमें प्रयोग होने वाले रसायनों से पर्यावरण को नुकसान होता है। इसे खुले में जलाने पर हवा और पानी दोनों प्रदूषित होता है। प्रचार के दौरान जनसभा के बाद बहुत बड़ी मात्रा में प्लास्टिक की बनी चुनाव सामग्री नालियों, सीवरेज सिस्टम में जाकर फंस जाती है।
जिला अधिकारियों को जारी निर्देश में आयोग ने कहा है कि चुनाव में पोस्टर, कटआउट, होर्डिंग्स, बैनर का प्रयोग होता है जो प्लास्टिक से बनी होती है। प्रचार और जनसभा के बाद यह कचरे में बदल जाती है। उसके निस्तारण की कोई व्यवस्था नहीं होती है। आयोग ने इसके एकत्र करने और उसके वैज्ञानिक तरीके से निस्तारण की जिम्मेदारी स्थानीय निकायों पर डाली है। इसका खर्च जनसभा से जुड़ा दल या नेता उठायेगा। यह खर्च पार्टी या उम्मीदवार के चुनावी खर्च में नहीं जोड़ा जायेगा। आयोग ने राजनीतिक दलों से भी अपनी प्रचार सामग्री में पीबीसी बेस्ड प्लास्टिक का प्रयोग न करने की सलाह दी है और कहा है कि वह चुनाव सामग्री में प्राकृतिक कपड़े, रिसाइकिल किये हुए कागज और कम्पोस्टेबिल प्लास्टिक का इस्तेमाल करें ताकि प्रदूषण न हो।
हमारे यहां सबसे बडी विडम्बना है कि सरकारें पर्यावरण संरक्षण के बारे में ढिंढोरा तो बहुत पीटती हैं लेकिन इस पर वे कभी गंभीर नहीं रहतीं। इतिहास इसका जीवंत प्रमाण है। सरकार की नाकामी का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि पर्यावरण मंत्री तक कहते हैं कि अधिकारी इस बाबत सुनते ही नहीं हैं। सरकारों की बेरुखी इसका सबूत है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में देश के राजनीतिक दलों के लिए पर्यावरण के मुद्दे की कोई अहमियत ही नहीं है। दुख है कि आजादी के बाद से आज तक किसी भी राजनीतिक दल ने पर्यावरण को कभी भी चुनावी मुद्दा बनाया ही नहीं। हां इस बार स्वास्थ्य का मुद्दा जो हरबार हाशिए पर रहता था, इस लोकसभा चुनाव में भाजपा, कांग्रेस समेत अधिकतर राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में जरूर अहम् रहने वाला है। इससे पहले के चुनावों में राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में स्वास्थ्य का मुद्दा एक तरह से नगण्य ही रहता था। वह बात दीगर है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के काल के आखिरी दो सालों में बदलाव जरूर देखने को मिला है। पहले देशभर के डेढ़ लाख हेल्थ एंड केयर वेलनेस सेंटर खोलने की घोषणा और फिर प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना शुरू होने से स्वास्थ्य अचानक एक राजनीतिक मुद्दा बन गया। इसका असर पिछले साल के अंत में हुए पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में देखने को मिला, जहां पांच राज्यों में से चार राज्यों के घोषणा पत्रों में स्वास्थ्य को प्रमुखता से स्थान दिया गया था।
2014 के आम चुनावों में कांग्रेस के घोषणा पत्र में नए वादों से अधिक यूपीए शासन की उपलब्धियों का ब्योरा दिया गया था। उसमें कांग्रेस ने स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 3 फीसदी करने का वायदा किया था। लेकिन इस बाबत कोई रोडमैप नहीं सुझाया था। इस बार कांग्रेस अध्यण्क्ष राहुल गांधी जहां स्वास्थ्य पर खर्च जीडीपी का 3 फीसदी करने का ऐलान कर चुके हैं। वहीं भाजपा मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के भरोसे जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करेगी। जबकि हकीकत यह है कि 2014 के भारतीय जनता पार्टी के घोषणा पत्र में स्वास्थ्य सम्बंधी मामलों के ज्यादातर हिस्से व्यवस्था की नाकामी की भेंट चढ़ चुके हैं।
लेकिन पर्यावरण के सवाल पर राजनीतिक दलों की चुप्पी समझ से परे है। किसी ने भी पर्यावरण के सवाल को अपना मुद्दा नहीं बनाया। कारण बिल्कुल साफ है कि यह मुद्दा चुनावों में न तो उनकी जीत का आधार बनता है और न इससे उनका वोट बैंक मजबूत होता है। उनकी नजर में यह बेकार का सवाल है। जबकि पर्यावरण के बिना जीवन असंभव है। दुनिया के वैज्ञानिक और जीव विज्ञानियों का मानना है कि अब दुनिया को पर्यावरण की रक्षा के लिए तुरंत जरूरी कदम उठाने होंगे। इसको हमें आर्थिक लाभ से परे उठकर अपने दिमाग और दिल को जीवन के मूल्य और सिद्धांतों से जोड़कर न केवल देखना होगा बल्कि पर्यावरण की रक्षा के उच्च आदर्शों का भी पालन करना होगा तभी कामयाबी मिल सकेगी। देश के राजनीतिक दल आज इस पर भले ध्यान न दें लेकिन इस सच्चाई को नकार नहीं सकते कि मानवीय स्वार्थ के चलते हुए तापमान में बदलाव का दुष्परिणाम जहां सूखा, ग्लेशियरों के पिघलने, खाद्य संकट, पानी की कमी, फसलों की बर्बादी, मलेरिया, संक्रामक और यौन रोगों में वृद्धि के रूप में सामने आया, वहीं इसकी मार से क्या शहर, गांव, धनाढ्य-गरीब, शहरी-उच्च-निम्न वर्ग या प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी-कमजोर वर्ग कोई भी नहीं बचेगा और बिजली -पानी के लिए त्राहि-त्राहि करते लोग जानलेवा बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में जाने को विवश होंगे। वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। असल में तापमान में वृद्धि पर्यावरण प्रदूषण का ही परिणाम है। देश के भाग्यविधाताओं ने आजादी के बाद तेज विकास को ही सबसे बड़ी जरूरत माना। वह हुआ भी लेकिन इसमें सबसे बड़ा नुकसान हमारे जीवन का आधार पर्यावरण का हुआ जिसे मानवीय स्वार्थ ने विनाश के कगार पर पहंुचा दिया है।
जलवायु परिवर्तन ने इसे बढ़ाने में अहम् भूमिका निबाही है। दुनिया में इस बारे में किये गए अध्ययन, शोध इसके जीवंत प्रमाण हैं। आज सरकारों का ध्यान आर्थिक विकास पर ही केन्द्रित है, उनकी प्राथमिकता सूची में न जंगल हैं, न नदी, न जल न जमीन और न हवा है। देश के नीति-नियंताओं का पूरा ध्यान तो इनके दोहन पर ही केद्रित रहता है। उसी के दुष्परिणामस्वरूप पर्यावरण पर प्रदूषण के बादल मंडरा रहे हैं। पर्यावरण स्वच्छता में देश की राजधानी दिल्ली का प्रदर्शन बीमारू राज्यों से भी बदतर है। देश में आज पर्यटन विकास के नाम हजारों-लाखों हरे-भरे पेड़ों की बलि दी जा रही है। पर्यावरण संरक्षण की कोशिशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित की जगह जन-भागीदारी को अहमियत दिये जाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। यदि हम समय रहते कुछ कर पाने में नाकाम रहे तो वह दिन दूर नहीं जब मानव सभ्यता का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद् है)
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