बाप की जिंदगी भी क्या कोई जिंदगी है, कहने को तो वह बाप है लेकिन वह किस हाल मे जीता है, यह वही जानता है। असलियत यह है कि वह मात्र नाम का बाप होता है जिसकी कोई अहमियत नहीं होती। एक उम्र ऐसी भी आती है जब वह पूरी तरह अकेला होता है या यूं कहें कि उसे अकेला छोड़ दिया जाता है। उसकी तन्हाई तब शुरू होती है, जब उसके बच्चे बड़े हो जाते हैं ।यहीं वह वक्त होता है जबसे बच्चे बाप से दूर होने लगते हैं। और बच्चों की शादी के बाद तो रही-सही कसर वह भी पूरी हो जाती है और तब बच्चे बाप को पूरी तरह परिवार से अलहदा ही कर देते हैं या बाप नाम के जीव को परिवार से अलहदा ही मान लेते हैं। घर के फैसलों में तो उसकी राय ली ही नहीं जाती। कारण उसे नाकारा मान उनसे दूर रखा जाता है। ना घर-परिवार के लोगों के बीच उसकी मौजूदगी की कोई जरूरत होती है। वह तो घर के एक कमरे मे कैद होकर एक कैदी की तरह अपनी जिंदगी जीने को मजबूर होता है। हां जब जरूरत महसूस होती है तभी उसकी उन्हें याद आती है।
हकीकत यह भी है कि बाप तो केवल उनकी जरूरत की वस्तु बनकर रह गया है। भावात्मक संबंध तो तिरोहित हो चुके होते हैं। लाड-प्यार-दुलार तो दूर की बात है। वे उसे अपने बीच देखना भी पसंद नहीं करते। अपने कमरे में पड़े-पड़े उस घर की दीवारें तक उसे अजनबी लगती हैं। वह तो अकेले वहां घुटन में पडा रहता है,अपनी बेबसी पर रोने के सिवाय उसके पास रह ही क्या जाता है। यह जरूर एक कड़वी सच्चाई है कि मां उन्हैं प्यारी लगती है और इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वही उनकी कमियों-गलतियों को जिंदगीभर छुपाती है। वह बात दीगर ह कि अब तो वही औलादें मां को बीच सड़क या बस अड्डे, हवाई अड्डे पर छोड़कर चले जाती हैं। आये-दिन ऐसे समाचार अखबारों की सुर्खियां बनते हैं। उस बाप के पास ऐसे हालात में पुरानी यादें ही उसकी जिंदगी का सहारा रह जाती हैं। वह तो वहां केवल और केवल मौत का ही इंतजार करता है । दुख की बात यह है कि कमबख्त वह भी जल्दी नहीं आती।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं पर्यावरणविद हैं।)

