चीफ जस्टिस बीआर गवई ने बुधवार को राष्ट्रपति और राज्यपाल की मंजूरी की डेडलाइन तय करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान नेपाल विद्रोह का जिक्र किया। उन्होंने कहा. “हमें अपने संविधान पर गर्व होना चाहिए, देखिए पड़ोसी देशों में क्या हो रहा है। नेपाल में तो हमने देख रहे हैं।”
इस पर जस्टिस विक्रम नाथ ने जोड़ते हुए कहा कि हां, बांग्लादेश भी। जजों ने ये बयान सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलील पर दिया। इससे पहले सॉलिसिटर जनरल ने कहा,
सुनवाई के दौरान राज्यों की दलील
तेलंगाना के वकील निरंजन रेड्डी- संविधान 75 साल पहले बना था, जब राज्यों में अलगाव की प्रवृत्ति थी। अब ऐसा नहीं है, इसलिए राज्यपाल को विवेकाधिकार देना राज्यों की शक्ति कम करने जैसा होगा।
तमिलनाडु के वकील पी. विल्सन- बिल राजनीतिक इच्छा का प्रतीक होता है, राज्यपाल अदालत नहीं हैं कि वे उसकी संवैधानिकता पर फैसला करें।
मेघालय के एडवोकेट जनरल अमित कुमार- अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास सिर्फ एक विकल्प है कि बिल पर हस्ताक्षर करना।
वहीं, आंध्र प्रदेश सरकार ने केंद्र की दलीलों का समर्थन किया, लेकिन कहा कि राज्य सरकारें अनुच्छेद 32 के तहत इस मामले पर सीधे सुप्रीम कोर्ट नहीं जा सकतीं।
दरअसल, राष्ट्रपति और राज्यपाल की मंजूरी की डेडलाइन मामले पर सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5-जजों की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है। इसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर शामिल है।
9 सितंबरः कर्नाटक सरकार बोली- राष्ट्रपति और राज्यपाल सिर्फ नाममात्र के प्रमुख
कांग्रेस के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार ने इस पर अपनी दलील दी और कहा कि संवैधानिक व्यवस्था के तहत, राष्ट्रपति और राज्यपाल सिर्फ नाममात्र के प्रमुख हैं। दोनों, केंद्र और राज्यों में मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर काम करने के लिए बाध्य हैं।
कर्नाटक सरकार की ओर से सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली 5-जजों की बेंच को बताया कि विधानसभा में पारित बिलों पर कार्रवाई के लिए राज्यपाल की संतुष्टि ही मंत्रिपरिषद की संतुष्टि है।

