विगत दिनों ब्राजील के बेलेम में हुआ संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन काप-30 सम्पन्न हो गया। सम्मेलन के अंत में वही पुराना जुमला दोहराया गया जिसकी कि पहले से ही उम्मीद थी, कि आने वाले समय में सभी देश मिलकर काम करेंगे जो संभव नहीं दिखता। बीते दशकों का इतिहास इसका प्रमाण है। सम्मेलन का हासिल भी यह संदेश दे रहा है कि यह उतना आसान नहीं है। खासकर सम्मेलन के आखिरी दिन जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने को लेकर जिस तरह की खींचतान हुयी, वह दुनिया को आश्वस्त करने की दिशा में विश्वसनीय नहीं दिखाई दी। यही नहीं सम्मेलन में आपाधापी और अनिश्चितता का आलम यह रहा कि जीवाश्म ईंधन से जुड़ी वैश्विक योजना का उल्लेख पहले ड्राफ्ट में किया गया था, उसको आखिर में संशोधित ड्राफ्ट से हटा ही दिया गया। इससे यह साफ हो गया है कि जीवाश्म ईंधन का मुद्दा इसके बाद भी यानी आने वाले दौर में भी अनसुलझा ही रहेगा। जैसी कि 11 नवम्बर को सम्मेलन की शुरुआत में यह उम्मीद बंधी थी कि सम्मेलन में भाग लेने वाले दुनियाभर के देश ग्लोबल वार्मिंग के खिलाफ किसी ठोस नतीजे पर पहुंच जायेंगे। लेकिन सम्मेलन की गति को देखते हुए और दुनिया के देशों के रवैय्ये से आखिर में सम्मेलन जिस मुकाम पर पहुंचा, उसने साबित कर दिया कि वैश्विक तापमान बढ़ोतरी के खिलाफ सम्मेलन कुछ भी करने में नाकाम रहा और उसकी गति ‘ नौ दिन चले अढाई कोस’ वाली ही रही। इसके बावजूद सम्मेलन में हुयी जलवायु वार्ता को कई मायनों में अभूतपूर्व कहा जा रहा है। इसका अहम कारण यह रहा कि सम्मेलन में मौजूद दुनियाभर के 194 देशों ने तमाम तरह के मतभेदों-तनावों और अमरीका की गैर मौजूदगी के बीच एक ऐसे पैकेज पर सहमति दर्ज की ।इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।
गौरतलब है कि जलवायु मुद्दे पर इसे बेलेम पॉलिटिकल पैकेज की संज्ञा दी जा रही है।जाहिर है और उम्मीद भी की जा रही है कि यह पैकेज वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की राह आसान करेगा। दरअसल दुनियाभर के 194 देशों की जलवायु मुद्दे पर एकमत से सहमति यह जाहिर करती है कि अब जलवायु मुद्दा वैश्विक नेतृत्व का सवाल नहीं रह गया है और न ही नैतिक मुद्दा रहा है बल्कि अब यह मुद्दा आर्थिक सुरक्षा और विकास का रास्ता भी बन चुका है। यही वह अहम कारण रहा जिसके चलते इस सम्मेलन में अप्रत्याशित रूप में एक नये तरीके का आपसी सहयोगात्मक रवैय्या कहें या फिर बहुपक्षीय वाद कहें, उभरा जिसके कारण सम्मेलन में वह चाहे बड़े देश हों या फिर छोटे देश हों या फिर विकासशील देश एक मंच पर बराबरी के साथ एक साथ बैठे नजर आये और जलवायु जैसे एक मुद्दे पर ही सही, एकमत दिखाई दिये।
इसमें दो राय नहीं है और यह कटु सत्य भी है कि आज दुनिया भीषण गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है। इसके बावजूद दुनिया के अधिकाधिक देश वैश्विक तापमान वृद्धि को दो डिग्री सेल्सियस के नीचे रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को लेकर उदासीन बने हुए हैं। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है। दिनोंदिन तेजी से बढ़ता कार्बन उत्सर्जन और तापमान मानव अस्तित्व के लिए खतरा बनता जा रहा है। इसके पीछे विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की अपनी प्रतिबध्दता पर खरा नहीं उतरना रहा है। यह हमारे पर्यावरण, वन और जलवायु के लिए जहां भीषण खतरा है, वहीं मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए भीषण चुनौती बनकर सामने आ खड़ी है। जबकि होना यह चाहिए था कि विकसित देश निर्धारित अवधि से पहले ‘नेट जीरो’ लक्ष्य तक अपनी पहुंच बनाने में कामयाब हो जाते। चूंकि विकसित देश ज्यादा कार्बन उत्सर्जन के दोषी हैं, इसलिए उनको यह अतिरिक्त जिम्मेदारी भी वहन करनी चाहिए थी।
सबसे बड़ी बात यह कि काप-30 सम्मेलन यह जानते-समझते हुए कि अब हमारे पास समय बहुत ही कम बचा है, और पेरिस समझौते को अमल में लाना निहायत जरूरी है,,मुख्यत: दुनियाभर के देश क्लाइमेट एक्शन को किस तरह आगे बढ़ाते हैं, तकनीक व राहत राशि कहें या धन उन देशों जो इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं के लोगों जिनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, के पास कैसे पहुंचाया जा सकता है और जलवायु कार्यवाई किस तरह समग्रता में की जा सकती है, इन तीन सवालों के बीच ही घूमता रहा। सम्मेलन का यह विमर्श भी सराहनीय कहा जा सकता है कि मौजूद देशों ने इसे स्वीकारा कि विकासशील देशों के हितों को अहमियत देना समय की मांग है। इसका अहम कारण यह कि जलवायु संकट में उनका योगदान सबसे कम या यूं कहें कि नगण्य है। इसके बावजूद वे इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भुगत रहे हैं। जहांतक जलवायु परिवर्तन से प्रभावित गरीब देशों के लिए फंड के आवंटन का सवाल है, ताकि वे मौसम के कहर से निबटने में कामयाब हो सकें। उनके लिए सम्मेलन में सर्वसम्मत लिया गया निर्णय सराहनीय कदम रहा कि उनको तीन गुणा फंड दिया जायेगा। खासियत यह कि मौजूद देशों ने अमीर देशों से अपील की कि वे साल 2035 तक विकसित देशों को गर्म होती दुनिया के हिसाब से ढलने के लिए दिये जाने वाली राशि को कम से कम तीन गुणा कर दें। क्योंकि विकासशील देशों को समुद्र के बढ़ते जलस्तर और भोषण गर्मी, सूखा, बाढ और तूफान से निपटने की खातिर तुरंत फंड की जरूरत है। इस समझौते के लिए अधिकतर देशों ने जलवायु परिवर्तन के असर से निबटने में एकता दिखाने की कोशिश की लेकिन अमीर और विकासशील देशों के बीच, इसके साथ तेल, गैस और कोयले पर अलग अलग सोच रखने वाली सरकारों के बीच उभरे मतभेद उनके पुराने सोच का सबूत तो है हीं, यह भी कि इन मुद्दों पर वह आज भी अपने रवैय्ये से टस से मस नहीं हुये हैं। जंगलों की सुरक्षा का मुद्दा भी आम सहमति न हो पाने के चलते लटका ही रह गया।
जहांतक भारत का सवाल है, भारत का यह दृढ़ मत रहा है कि विकसित देशों को तय अवधि से पहले ‘नेट जीरो’ लक्ष्य तक पहुंचना चाहिए। विकसित देशों ने ज्यादा कार्बन उत्सर्जन किया है, तो अतिरिक्त जिम्मेदारी भी उन्हें ही उठानी चाहिए। उनको भारत से सबक लेना चाहिए जो अपने विकास कार्यक्रम और पर्यावरण संरक्षण पहल को साथ साथ आगे बढ़ा रहा है। इसी का परिणाम है कि भारत 2070 की समय सीमा से पहले ही नेट जीरो का लक्ष्य हासिल कर लेगा। भारत ने सम्मेलन को आश्वस्त किया कि वह संशोधित एनडीसी साल 2035 तक समय पर घोषित कर देगा।
जीवाश्म ईंधन का मसला छोड़ दें जबकि हकीकत यह है कि जलवायु संकट बढाने में जीवाश्म ईंधन कोयला, गैस और तेल अभी भी सबसे बड़े खलनायक हैं और जैसीकि आशा थी कि सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन की मजबूत लाबी जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने के रोडमैप जारी होने में अडंगा लगायेगी और वह अंतत अपने मकसद में कामयाब भी रही । नतीजतन जीवाश्म ईंधन का मुद्दा लटका ही रह गया। इसके बावजूद कुलमिलाकर सम्मेलन का निष्कर्ष काफी प्रेरणादायक है । उसमें ग्लोबल इम्पलीमेंटेशन एक्सिलरेटर की शुरुआत अहम कदम है जिसके तहत अगले दो साल में देशों की जलवायु योजनाओं में और 1.5 सी लक्ष्य के बीच के अंतर को पाटने के लिए एक फास्ट ट्रैक शुरू किया जाना है और दूसरा सराहनीय प्रयास जस्ट ट्रांजिशन मैकेनिज्म से जुड़ा है। बेलेम से यह साफ संकेत दिया गया कि दुनिया की ऊर्जा की कहानी अब पहले जैसी नहीं रही, वह अब बदल रही है। दक्षिण कोरिया का यह ऐलान दुनिया के लिए एक अच्छा संकेत है कि वह कोयले से बहुत जल्दी बाहर होगा। जबकि भारत की जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता बढ़ना चिंता का विषय है जिसकी अहम वजह रिकॉर्ड गर्मी से बिजली की मांग में बेतहाशा बढ़ोतरी है। फिर कार्बन डाई आक्साइड उत्सर्जन में डेड फीसदी की बढोतरी जहां एक और चिंता का सबब है, वहीं समय से पहले आये मानसून और ऊर्जा के तेज विस्तार ने कोयले की खपत को सीमित रखने में अहम भूमिका निबाही है। यह संतोष का विषय है। कुल मिलाकर बेलेम से निकली हवा ने यह साफ कर दिया है कि दुनिया भले पहले से कहीं ज्यादा विभाजित है लेकिन जलवायु कार्रवाई पर बनी सहमति यह संकेत देती है कि साझा संकट साझा समाधान चाहता है। अब भी बहुत कुछ हो सकता है।

