नए कानून में किसानों की सहमति का प्रावधान समाप्त कर दिया था
मोदी सरकार (Modi government) की सत्ता में आने के कुछ महीने बाद ही केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाने को लेकर बात कही थी। इस अध्यादेश में सही मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार जैसी बातें शामिल थीं, साथ ही पुर्नवास और पुर्नस्थापन का भी जिक्र था। नए कानून में किसानों की सहमति (Kisano ka protest) का प्रावधान समाप्त कर दिया था। देश में पहली बार भूमि अधिग्रहण बिल 1894 में आया था जिसे अंग्रेजों ने बनाया था। संशोधित कानून असल में साल 2013 में ही बन गया था और यूपीए सरकार के दौरान लागू भी हो गया था।
80 फीसदी जमीन मालिकों की सहमति चाहिए होती
केंद्र ने 2014 में नए कानून में थोड़े बदलाव की बात की थी। इस अध्यादेश में एक संशोधन ये था कि जमीन के अधिग्रहण और पुनर्वास के मामलों में सरकार ऐसे भूमि अधिग्रहण पर विचार नहीं करेगी जो या तो निजी परियोजनाओं के लिए निजी कंपनियां करना चाहेंगी या फिर जिनमें सार्वजनिक परियोजनाओं के लिए बहु-फसली जमीन लेनी पड़े। संशोधन में पुनर्वास पैकेज की भी बात थी. इस कानून के तहत सरकार और निजी कंपनियों के साझा प्रोजेक्ट में 80 फीसदी जमीन मालिकों की सहमति चाहिए होती थी। बाद में इस कानून को लेकर किसानों के बीच जबरदस्त विरोध होने लगा। किसानों से भी ज्यादा विपक्षी दल इस अध्यादेश के खिलाफ खड़े हो गए। सत्ता पक्ष ने विधेयक को किसानों के हित में बताते हुए ये तक कह दिया कि लोगों और किसानों में जानबूझकर भ्रम का माहौल बनाया जा रहा है। हालांकि, इससे भी बात नहीं बनी। केंद्र सरकार ने संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर चार बार अध्यादेश जारी किए थे, लेकिन वह संसद से बिल को मंजूरी नहीं दिला पाई। बाद में खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 अगस्त 2015 को ‘मन की बात’ (Mann ki baat) कार्यक्रम में कहा कि भूमि अधिग्रहण विधेयक वापस लिया जा रहा है।