संकल्प वह शक्ति है जो व्यक्ति को दृढ़, साहसी, स्वप्रेरित व अपने लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध करता है। व्यक्ति को परखता है, निरखता है। निहितार्थ यह है कि संकल्प लेने के प्रक्रिया में अनगिनत उधेड़बुन, अस्थिरता, उद्वेग आदि से गुजरना होता है। अपने होने मात्र की अनुभूति से संघर्ष करना होता है। समाज के तीक्ष्ण वाणों और प्रकृत के माया से निकल जाना होता है।
इस तरह व्यक्ति गीता के स्थितप्रज्ञ की भाँति स्थिरचित्त होकर ,अपने मन को झंकृत कर यह कहता है कि” हाँ मुझे यही करना है” ।
अब ये आवश्यक नहीं कि ये संकल्प ऊँचा हो, बड़ा हो, सफल हो। होता है तो बस अटल, अविरल और अडिग। जैसे एक बच्चे का जन्म ही , माता -पिता के जिम्मेदारी का संकल्प है, एक किसान को अपनी फसल बचाने का संकल्प है, एक विद्यार्थी को अच्छा पढ़ने का संकल्प है। संवैधानिक पद संविधान के पालन से संकल्पबद्ध है। नौकरीपेशा अपने काम के लिए संकल्पबद्ध हैं। प्रेमी अपने प्रेमिका को पा लेने, नदी सागर में गिर जाने, हवा सरसराहट से बह जाने, बूंदे बरस जाने के लिए संकल्पबद्ध है।
हालाकि कुछ ऐसे संकल्प हैं जो छूट भी जाते हैं, वो प्रकृत को मलिन न करने का, बुजुर्गों के देखभाल न करने का, लोकतंत्र को लज्जित न करने का, राष्ट्रीयता की भावना से विमुख होने का आदि। कुछ लोगों के संकल्प होते तो है ,पर इनके मार्ग और लक्ष्य कुछ अलग होते हैं, जैसे वन को काट देने का,धन हड़प के जमा कर लेने का, सत्ता पर बने रहने का, भय का आतंक कायम कर लेने का , दूसरों के हक मार लेने का आदि।
यानी ये बात सहज ही स्वीकार कर लेने का है कि हमारी मनोवृति ही यह निश्चय करती है कि क्या निर्णय लें और क्या छोड़ दें। अंततः परिणाम संकल्प की परीक्षा है।
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