देश में समय पर न्याय मिलने की आस आज आसमान से तारे तोड़ने के समान है। आम आदमी जब देश की अदालतों में न्याय की गुहार लगाता है, उस समय वह यही उम्मीद करता है कि उसे समय पर न्याय मिल सकेगा। लेकिन हालात गवाह हैं कि देश के आम आदमी को पैसा और समय खर्च करने के बाद भी समय पर न्याय मिल पायेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। देखा तो यहां तक गया है कि बहुतेरे मामलों में बीसियों बरस तक याचिका कर्ता को न्याय नहीं मिला जिसकी वजह से न्याय पालिका से आमजन का विश्वास ही उठता जा रहा है। वह बात दीगर है कि बीते बरसों में न्याय व्यवस्था में सुधार की दिशा में काफी प्रयास किये गये हैं। इसमें आनलाइन व्यवस्था से लोगों का श्रम और समय दोनों ही बचता है,साथ ही पारदर्शिता भी बढ़ी है। लेकिन इसके बावजूद न्याय प्रक्रिया में विलम्ब की समस्या जस की तस बनी हुयी है। इस सच्चाई को झुठलाया नहीं जा सकता।
इस बारे में सरकार को पूरी गंभीरता से सोचना होगा और इस तरह से प्रयास करने चाहिए ताकि आम जन को अदालतों से त्वरित न्याय मिल सके और न्याय व्यवस्था में उसका विश्वास कायम हो सके। अब सवाल यह उठता है कि वह कौन से कारण हैं जिनके चलते देश की जनता न्याय से वंचित है जिनपर तत्काल काम किया जाना बेहद जरूरी है। वह चाहे जागरूकता का सवाल हो, अदालतों में जजों की कमी का सवाल हो, वहां कर्मियों और भौतिक संसाधनों की कमी का सवाल हो, इनका तात्कालिक रूप से निपटारा जरूरी है जिसके चलते हर साल अदालतों पर लाखों मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है। आज 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमे देश की अदालतों में लंबित पड़े हैं और याचिका कर्ता न्याय पाने की आस में दर-दर भटकने को मजबूर हैं। हकीकत यह है कि इसी समस्या के चलते सालों साल के लम्बे इंतजार से थक-हारकर हजारों-लाखों लोगों ने मुकदमे लड़ने से ही तौबा कर लिया है। यदि इस समस्या का सिलसिलेवार जायजा लें तो पाते हैं कि देश की अदालतों में लंबित मुकदमों की बढ़ती तादाद के पीछे कोई एक ही वजह जिम्मेदार नहीं है। देखा जाये तो सबसे पहले कानूनी जागरूकता का अभाव और अदालतों में जाने के लिए संसाधनों की कमी के चलते आम आदमी सबसे ज्यादा परेशान है। इसका खुलासा तो संसद की स्थाई समिति ने अपनी रिपोर्ट में ही किया है। संसद की कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय विभाग से संबंधित संसदीय स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि देश में फैली सामाजिक और आर्थिक असमानता ‘ सभी के लिए न्याय ‘ के लोकतांत्रिक उद्देश्य को खत्म कर रही है। हकीकत में लोगों को कानूनी सहायता मुहैय्या कराना राज्य का दायित्व है और इसे हासिल करना लोगों का अधिकार है। देश में हाशिए पर पड़े समुदायों को जरूरी कानूनी सेवाओं से जोड़ने के लिए पारा लीगल स्वयंसेवा की पूरी क्षमता का विस्तारित भूमिकाओं, लक्षित प्रशिक्षण और सार्थक मान्यता के माध्यम से उनकी प्रभावशीलता को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम में डिजीटल साक्षरता, मध्यस्थता तकनीक और स्थानीय आवश्यकता अनुरूप प्रासंगिक कानूनी कौशल शामिल किया जाना चाहिए तथा कानूनी साक्षरता को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए। साथ ही सरकार को संविधान में परिकल्पित सच्ची भावना से लोगों को कानूनी सहायता प्रदान की जानी चाहिए।
केन्द्रीय कानून एवं न्याय मंत्रालय ने भी स्वीकार किया है कि देश की अदालतों में मुकदमों के बोझ के लिए सहायक कर्मियों, भौतिक संसाधनों की कमी के साथ- साथ जांच एजेंसिया,वकीलों और दूसरे हितकारकों मे तालमेल की कमी भी मुख्य कारण है। इसके साथ गवाहों और वादियों का सहयोग,नियमों व प्रक्रियाओं का अनुचित प्रयोग, न्यायालयों द्वारा बार-बार स्थगन और समान प्रकृति के मामलों की निगरानी, ट्रैकिंग और सुनवाई के लिए पर्याप्त व्यवस्था का अभाव भी प्रमुख वजहें हैं। आपराधिक मामलों में विभिन्न ऐजेंसियों जैसे कि पुलिस, अभियोजन,फॉरेंसिक लैब, हस्तलेखन,चिकित्सा व कानूनी विशेषज्ञों आदि की समय पर सहायता न मिलना भी मुकदमों में देरी का कारण है। फिर 21 फीसदी अदालतों में सहायक कर्मियों के पद खाली हैं जो सबसे बड़ी बाधा है।
देश की अदालतों में जहां तक जजों की कमी का सवाल है, देश की जिला अदालतों में जजों के स्वीकृत पदों की संख्या 25 हजार है जबकि वहां 5,500 जजों के पद खाली पड़े हैं। यही हाल देश की 25 हाई कोर्ट का है, वहां पर जजों की स्वीकृत संख्या 1122 है जबकि वहां 792 जज कार्यरत हैं और 329 जजों के पद खाली हैं। हां देश की सर्वोच्च अदालत में कुल 34 जज हैं और वहां इस समय एक भी जज का पद खाली नहीं है। वह बात दीगर है कि वहां कुल लम्बित मुकदमों की तादाद 86,728 है। जबकि देश के हाईकोर्ट में अभी भी 63 लाख 37 हजार 265 और जिला अदालतों में कुल मिलाकर 4 करोड़ 68 लाख 27 हजार मुकदमे लंबित पड़े हैं। तारीख पर तारीख…..और फिर अगली तारीख! यह सिलसिला ऊपर से लेकर निचली अदालत तक हर जगह बराबर जारी है,थमा नहीं है। इसमें वकीलों के निर्धारित तिथि पर पेश न होने, स्टे होने, भगोड़े अपराधियों और दस्तावेजों का इंतजार व सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्टे दे दिया जाना भी एक बड़ा कारण है।
लंबित मुकदमों में सबसे ज्यादा मामले रिट पिटीशन, टैक्स और आपराधिक होते हैं। दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा जारी आंकड़ों की मानें तो हाईकोर्ट की विभिन्न पीठों के सामने 1,20 लाख मामले लंबित हैं। लंबित मामलों के कारण कई जरूरी मामले नहीं सुन पाने की स्थिति पर खुद दिल्ली हाईकोर्ट की एक पीठ ने चिंता जाहिर की है। न्यायमूर्ति गिरीश कथपालिया की पीठ ने टिप्पणी की है कि – जजों की कमी के कारण कई मामले अनसुने ही रह जाते हैं। यही नहीं उचित समयावधि में अपीलों पर निर्णय भी नहीं ले पाते हैं। यह एक न्यायाधीश के लिए अत्यंत पीड़ा दायक होता है। लंबित मामलों की निरंतर बढ़ती तादाद की मुख्य वजह निरंतर न्यायाधीशों की कम होती संख्या भी है। सुप्रीम कोर्ट की एक रिपोर्ट की मानें तो देश के हाईकोर्ट में जजों की कमी के चलते सालाना 7 से 8 फीसदी की दर से मुकदमे बढ़ रहे हैं। यह स्थिति तब है जबकि जिला अदालतों के जजों की तुलना में हाईकोर्ट के जज सालाना अधिक मुकदमों का निपटारा कर रहे हैं।
यदि देश की राजधानी की सात जिला अदालतों का जायजा लें तो उनपर 15,62,533 लाख मुकदमों का बोझ है। इनमें से 2,19,040 लाख मुकदमे सिविल के हैं जबकि 13,43,493 आपराधिक मुकदमे लंबित हैं। इनमें 3 लाख 18 हजार मामले वकीलों के पेश न होने से अटके पड़े हैं जो कुल लम्बित मुकदमों का 20 फीसदी है। वहीं 2 लाख 21 हजार मुकदमों पर स्टे लगा हुआ है और 26 हजार से ज्यादा मुकदमे भगोड़े अपराधियों की वजह से लटके पड़े हैं। हालात यहां तक खराब हैं कि अक्सर कई मामलों में अगली सुनवाई के लिए वादी को छह से नौ महीने तक इंतजार करना पड़ता है। यही वह अहम वजह है कि इस लम्बी पीड़ा दायक त्रासदी के चलते लोग अब बीच में ही मुकदमा लड़ना छोड़ रहे हैं। अकेले दिल्ली में ही तीन हजार लोगों ने लम्बी पीड़ा दायक मुकदमे की प्रक्रिया से तंग आकर बीच में ही मुकदमा लड़ना छोड़ दिया। ऐसी स्थिति में आम आदमी के लिए अदालत की चौखट तक पहुंचना आसान नहीं है, वह बेहद कठिन चुनौती है जबकि वहां से न्याय पाना उसके लिए सपना हो गया है। गौरतलब है कि सरकार और तंत्र द्वारा जन-जागरूकता बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है ताकि लोग बेवजह मुकदमे बाजी से बचें। छोटे-मोटे आपसी झगड़े जिनका सुलह-समझौते से हल संभव है, इनके लिए लोक अदालत और विधिक सेवा प्राधिकरण को और प्रभावी बनाया जाना जरूरी है। देश में न्यायिक सुधार की प्रक्रिया जारी है। इस दिशा में यदि किसी कानून में संशोधन की आवश्यकता है, न्याय तंत्र में बदलाव की जरूरत है,तो केंद्र सरकार को तत्परता दिखाते हुए जल्द से जल्द संशोधन करना चाहिए और न्याय तंत्र में बदलाव करना चाहिए, तभी जरूरत मंदों की समय पर न्याय मिलने की आस पूरी हो सकेगी।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं।)

