आज समूचा हिमालयी क्षेत्र पारिस्थितिकी संकट से जूझ रहा है। दरअसल पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय परिस्थितिजन्य स्थितियों से जुड़ा संकट मौजूदा हालात में केवल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड तक ही सीमित नहीं रह गया है बल्कि समूचा हिमालयी क्षेत्र इसका सामना कर रहा है। असल में हालात गवाह हैं कि समूचा हिमालयी क्षेत्र बेहद गंभीर आक्रामक दौर से गुजर रहा है। यह टिप्पणी देश की सुप्रीम कोर्ट ने की है। गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश में आपदा के मामले में सुनवाई करते हुये न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने कहा था कि हालात की गंभीरता को देखते हुये हिमाचल प्रदेश के हालात पर स्वत: संज्ञान लेते हुये वह 23 सितम्बर को आदेश पारित करेंगे। गौरतलब है कि इस मामले में कोर्ट का सहयोग कर रहे एथिक्स क्यूरी वरिष्ठ वकील के परमेश्वर ने कहा क राज्य की तरफ से दी गयी रिपोर्ट में पेड़ों की तादाद, ग्लेशियर और खनन सम्बंधी पहलुओं आदि को शामिल किया गया है लेकिन कुछ भी खास बात नहीं कही गयी हैं। के परमेश्वर ने पीठ को जानकारी दी कि राज्य की तरफ से बताया गया है कि ग्लेशियर घट रहे हैं और उनकी गतिविधियां तेज हो रही हैं लेकिन उनका इस रिपोर्ट में जिक्र नहीं है। रिपोर्ट में केवल वादा किया गया है कि एक कमेटी इन मामलों को देखेगी। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 2018 से 2025 के बीच राज्य में बादल फटने जैसी 434 भयानक आपदायें दर्ज की गयीं । इनमें कुल 137 लोगो की जानें चली गयीं। इसके साथ व्यापक रुप से संपत्ति का नुकसान हुआ। इस पर पीठ ने कहा कि हम सारी चीजो का निचोड़ निकालकर सटीक निर्णय देंगे। पीठ ने 23 सितम्बर के अपने आदेश में हिमाचल सरकार से राज्य में प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और पारिस्थितिकीय असंतुलन से सम्बंधित सवालों की एक सूची जारी की है जिसका जबाव राज्य सरकार को 28 सितम्बर तक कोर्ट में पेश करना है। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह सवाल एमिक्स क्यूरी की 68 पेज की रपट के आधार पर राज्य सरकार से पूछे हैं। यही नहीं एक अन्य याचिका जो हरियाणा की रहने वाली अनामिका राणा ने दायर की थी, पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर.गबई और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन की पीठ ने कहा है कि हमने उत्तराखंड, हिमाचल और पंजाब में अभूतपूर्व बाढ और भूस्खलन देखा है। मीडिया में आये वीडियो का जिक्र करते हुये पीठ ने कहा कि बड़ी संख्या में हमने लकड़ी के गट्ठे पानी में बहते हुये देखे हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि पहाड़ों पर बड़ी संख्या में पेड़ों की अवैध कटाई हुयी है। इसी के फलस्वरूप पहाड़ों पर ये आपदायें आयीं हैं। यह पहाड़ों पर विकास और पर्यावरण के बीच असंतुलन का दुष्परिणाम है। हमने पंजाब की तस्वीरें भी देखी हैं। पूरे खेत और फसलें जलमग्न हैं। यह गंभीर मामला है। विकास को राहत उपायों के साथ संतुलित किये जाने की बेहद जरूरत है। इसी बीच सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि मानव ने प्रकृति में इतना अधिक हस्तक्षेप किया है जिसका प्रकृति अब हमें जबाव दे रही है। अंत में प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि हमने मामले की गंभीरता को बखूबी समझा है। याचिका में हिमाचल, उत्तराखंड, पंजाब और जम्मू-काश्मीर में बाढ , बादल फटने और भूस्खलन का मुद्दा उठाते हुये भविष्य के लिये कार्य योजना बनाने की मांग की गयी जिससे यह स्थिति दोबारा न आने पाये। इसके लिए एस आई टी गठित की जाये जो पर्यावरण कानून एवं उसके दिशा-निर्देशों के उल्लंघन और सड़क निर्माण के मानकों के उल्लंघन की जांच करे जिससे इन राज्यों में 2023-2024 और 2025 में ये आपदायें आयीं। देखा जाये तो हिमालयी इलाका 13 राज्यों यथा उत्तराखंड, हिमाचल, सिक्किम सहित केन्द्र शासित प्रदेशों में फैला हुआ है।। मानसून के दौरान इनको अधिकाधिक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। ये अपनी जटिल बनावट, नाजुक हालात और लगातार बदलती जलवायु परिस्थितियों की वजह से विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं जैसे भूस्खलन, बाढ, भूकंप, बादल फटने और ग्लेशियर पिघलने की वजह से आने वाली बाढ के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं। ये आपदायें आबादी क्षेत्र, बुनियादी ढांचों और जैव विविधता के लिए गंभीर खतरा पैदा करती हैं। एक आकलन के मुताबिक 2013 से 20022 के बीच पूरे देश में 156 आपदायें दर्ज हुयीं, जिनमें 68 हिमालयी क्षेत्र में हुयीं।देश के भौगोलिक क्षेत्र में 18 फीसदी की हिस्सेदारी रखने वाले इस हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की हिस्सेदारी करीब 44 फीसदी है। हकीकत यह है कि 1902 से लेकर अब तक इस क्षेत्र में दर्ज 240 आपदाओं में 132 बाढ़ से सम्बंधित, 37 भूस्खलन की, 23 तूफानों की, 17 भूकंप की और 20 से ज्यादा चरम तापमान की दर्ज हुयीं लेकिन इस बार तो इस हिमालयी क्षेत्र में कुदरत ने तबाही के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। असलियत में हिमाचल, पंजाब, उत्तराखंड और जम्मू-काश्मीर में बादल फटने, भूस्खलन और बाढ की बर्बादी के मंजर हमारी स्मृतियों से ओझल भी नहीं हुये थे कि बीते दिनों देहरादून में सहस्त्र धारा जैसे मैदानी इलाकों तक को इसका प्रकोप झेलना पडा। जबकि अभी तक पहाड़ी इलाकों में ही बादल फटने और भूस्खलन जैसी घटनायें घटती रही हैं। इस बदलाव ने चिंतायें और बढ़ा दी हैं। दरअसल हिमालय के हादसे बता रहे हैं कि हिमालय क्षेत्र में सब ठीक नहीं चल रहा है। मौसमी बदलाव और इस हिमालयी इलाके में विकास के नाम पर पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका है। सुप्रीम कोर्ट तो इस बारे में टिप्पणी कर ही चुका है। हिमालयी राज्य उत्तराखंड में बीते सालों में ढाई लाख से ज्यादा पेड काट दिये गये।अभी एक लाख पेड कटान के लिए चिन्हित कर दिए गये हैं। यह विनाश आल वैदर रोड,पर्यटन, सड़क चौडी़करण, ऋषिकेश कर्णप्रयाग रेल परियोजना व सुरंग आधारित बिजली परियोजना के नाम पर किया गया है। इस विनाश में देवदार, बांज,राई, कैल जैसी दुर्लभ प्रजातियों का तो अस्तित्व ही मिटा दिया गया है। फिर पिछले बीस सालों के दौरान 40,000 हैक्टेयर जंगल आग की समिधा बन गये हैं। उत्तराखंड तो एकमात्र उदाहरण है जबकि विकास के नाम पर हिमाचल भी पेड़ों के कटान में पीछे नहीं है ।वैसे यह सिलसिला पूरे देश में जारी है। कहीं हीरा खदान के नाम पर तो कहीं सोलर एनर्जी के नाम पर तो कहीं विकास परियोजनाओं के नाम पर पूरे देश में पेड काटे जा रहे हैं।हमारे देश में अकेले 2022 में 21,839 और 2023 में 21672 हैक्टेयर जंगल खत्म कर दिये गये। 2015 से 2020 के बीच देश में 6,68,400 हैक्टेयर जंगल साफ कर दिये गये।जबकि जैवविविधता के संरक्षण और मानव जीवन में पेड़ों की उपयोगिता जगजाहिर है। सबसे बड़ी चिंता तो मौसम को लेकर है क्योंकि मौसम में आ रहा बदलाव मानवता के समक्ष अबतक की सबसे बड़ी चुनौती है। इससे निपटने में देरी या नाकामी भविष्य के लिए बेहद खतरनाक है। यह खतरा केवल हिमालयी क्षेत्र को ही नहीं है, हकीकत में यह समूचे विश्व के लिए खतरनाक चुनौती है जिसका मुकाबला भी दुनियां के देशो को मिलकर करना होगा। फिर पर्यावरण में हो रहे बदलाव बेहद चुनौती भरे और गंभीर हैं जिसके दुष्परिणाम सभी को भुगतने होंगे। क्योंकि ये बदलाव धरती के अस्तित्व के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुके हैं। आई सी जे तो काफी पहले इसकी चेतावनी दे चुका है। फिर मानसून मौसम विज्ञानियों को जहां गच्चा दे रहा है, वहीं मानसून की अनिश्चितता ने देश में बारिश की तीव्रता को काफी हदतक बढा दिया है। जम्मू-काश्मीर, हिमाचल व उत्तराखंड में बादल फटने, अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में बढ़ोतरी ने यह संकेत तो दे ही दिया है कि मौसमी बारिश से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि बादल फटने या अचानक बाढ़ की घटनायें नहीं होंगी। हिमालयी राज्य तो आज भी भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं से आये-दिन दो-चार हो रहे हैं। फिर जलवायु परिवर्तन ने तो सब कुछ बिगाड कर रख दिया है। इससे जहां जल चक्र असंतुलित हो रहा है,वहीं बेसिन या तो सूख रहे हैं या जरूरत से ज्यादा भरे हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते आपदा की इस तरह की घटनाओं के बढ़ने की आशंका को नकारा नहीं जा सकता। कारण जलवायु परिवर्तन के लिहाज से हिमालयी क्षेत्र काफी संवेदनशील है जिससे आने वाले समय में आपदाओं के बढ़ने का खतरा बना रहेगा। फिर अस्थिर ग्लेशियर और ग्लेशियर झीलों की बढ़ती तादाद से बाढ़ की विकरालता का खतरा दिनोंदिन लगातार बढ़ता जा रहा है। इसमे दो राय नहीं कि यह झीलें भूस्खलन, भूकंप, भारी वर्षा या हिम स्खलन के कारण अचानक विनाशकारी बाढ़ के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं। एक खतरा और है, वह यह कि हिंदूकुश पर्वतमाला के ग्लेशियर भयावह रूप से तेजी से पिघल रहे हैं। नतीजतन इस इलाके की नदियां अपनी धाराएं बदल रही हैं। इन हालातों में ये सब ‘क्रायोस्फेरिक टाइम बम’ बन गये हैं। ये मुख्यत: पर्माफ्रास्ट के तेजी से पिघलने के चलते बनते हैं जो कार्बन डाई आक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों के रूपांतरण में संग्रहित कार्बन उत्सर्जन करते हैं जो वैश्विक तापमान बढ़ोतरी में तेजी लाता है। हिंदूकुश पर्वत को एशिया की जल मीनार और तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। इस महत्वपूर्ण क्षेत्र की अनदेखी समझ से परे है। लगता है केन्द्र और राज्य सरकारों के पास समर्पित आपदा प्रबंधन प्राधिकरण होने के बावजूद इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को रोकने या कम करने की कोई योजना ही नही है। जबकि ऐसे समय जब समूची दुनिया बढ़ते तापमान के कहर से त्रस्त है और जब इस इलाके में मौसमी विभीषिका विकराल रूप ले रही हैं, तब ये आपदायें इस क्षेत्र में तमाम खतरों की संवेदनशीलता की ओर संकेत करती हैं और हिमालय की नाजुक ढलान, घाटियों में मानवीय तथा निर्माण गतिविधियों के प्रति सावधान करती हैं। इस वर्ष जिस तरह कुदरत का कहर बरपा है, उससे न सिर्फ शासन तंत्र को, बल्कि नागरिक समाज को भी सबक लेने की जरूरत है। और यह भी कि हिमालयी अंचल में विकास योजनाओं के निर्माण के समय क्या-क्या सावधानियां बरती जानी चाहिए। जाहिर है ऐसे हालात में इस अति संवेदनशील इलाके में ऐसे तंत्र विकसित किये जाने की जरूरत है जो एक साथ अति वृष्टि, भूस्खलन, ग्लेशियरों के पिघलने, ग्लेशियर झीलों के टूटने, पर्माफ्रास्ट से होने वाले नुकसान पर अंकुश लगा सके। लगता है देश की सर्वोच्च अदालत की पीड़ा यही है। ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद हैं। )
पारिस्थितिकी संकट से जूझ रहा समूचा हिमालयी क्षेत्र: ज्ञानेन्द्र रावत
इस न्यूज़ पोर्टल अतुल्यलोकतंत्र न्यूज़ .कॉम का आरम्भ 2015 में हुआ था। इसके मुख्य संपादक पत्रकार दीपक शर्मा हैं ,उन्होंने अपने समाचार पत्र अतुल्यलोकतंत्र को भी 2016 फ़रवरी में आरम्भ किया था। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से इस नाम को मान्यता जनवरी 2016 में ही मिल गई थी ।
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