New Delhi/Atulya Loktantra : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में 4 नवंबर को आरसीईपी शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेंगे. एशियाई देशों के साथ क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) समझौते पर फैसले की घड़ी के नजदीक आने के साथ विपक्षी दलों और तमाम किसान-व्यापारिक संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन तेज कर दिए हैं.
आरसीईपी समझौता 10 आसियान देशों (ब्रुनेई, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, विएतनाम) और 6 अन्य देशों ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, जापान, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया के बीच एक मुक्त व्यापार समझौता है. इस समझौते में शामिल 16 देश एक-दूसरे को व्यापार में टैक्स में कटौती समेत तमाम आर्थिक छूट देंगे.
हालांकि, इस समझौते पर हस्ताक्षर होने के बाद भारतीय बाजार के लिए चीन से एक बड़ा खतरा पैदा हो सकता है. एक तरह से यह चीन व अन्य पांच देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता होगा क्योंकि आसियान देशों के साथ भारत का पहले से ही मुक्त व्यापार समझौता है.
विश्लेषकों को आशंका है कि आरसीईपी समझौता होने से भारतीय बाजार में चीनी सामान की बाढ़ आ जाएगी. चीन का अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर चल रहा है जिससे उसे नुकसान उठाना पड़ रहा है. चीन अमेरिका से ट्रेड वॉर से हो रहे नुकसान की भरपाई भारत व अन्य देशों के बाजार में अपना सामान बेचकर करना चाहता है. ऐसे में आरसीईपी समझौते को लेकर चीन सबसे ज्यादा उतावला है.
इसे अमेरिका के ट्रांस-पैसेफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) का चीन की तरफ से दिया गया जवाब भी कहा जा रहा है. जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टीपीपी से अमेरिका को अलग कर लिया तो एशियाई देशों के मुक्त व्यापार के सबूत के तौर पर आरसीईपी का ड्राफ्ट तैयार किया गया. हालांकि, इस समझौते में श्रम मानकों, भ्रष्टाचार व खरीदारी की प्रक्रिया ना होने को लेकर इसकी आलोचना की जा रही है. कहा जा रहा है कि यह समझौता सिर्फ टैरिफ फ्री ट्रेड पर ही केंद्रित है. सदस्य देशों के बीच आर्थिक असमानता को लेकर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं.
आरसीईपी के 16 सदस्य देशों की जीडीपी पूरी दुनिया की जीडीपी की एक-तिहाई है और दुनिया की आधी आबादी इसमें शामिल है. इस समझौते में वस्तुओं व सेवाओं का आयात-निर्यात, निवेश, बौद्धिक संपदा जैसे विषय शामिल हैं. चीन के लिए यह एक बड़े अवसर की तरह है क्योंकि उत्पादन के मामले में बाकी देश उसके आगे कहीं नहीं टिकते हैं.
आरसीईपी में शामिल होने के लिए भारत को आसियान देशों, जापान, दक्षिण कोरिया से आने वाले 90 फीसदी वस्तुओं पर से टैरिफ हटाना होगा. इसके अलावा, चीन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से 74 फीसदी सामान टैरिफ फ्री करना होगा. भारत की बड़ी चिंता चीन से होने वाला सस्ता आयात है, जिससे घरेलू कारोबार भी बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका है.
भारत का चीन के साथ पहले से ही 53 अरब डॉलर का भारी-भरकम व्यापार घाटा (भारत चीन से आयात ज्यादा और निर्यात कम करता) है. 2014-15 में नरेंद्र मोदी की सरकार के सत्ता में आने पर भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा 2600 अरब रुपए था जो 2018-19 में बढ़कर 3700 अरब रुपए हो गया है.
भारत के लिए बड़ी चिंता आर्थिक मंदी भी है. भारत की निर्यात विकास दर 2019 के पहले आठ महीनों में 11.8 प्रतिशत से घटकर 1.4 प्रतिशत पर आ गई है. अगर ये गिरावट जारी रही तो भारत का व्यापार घाटा और बढ़ेगा क्योंकि भारत दूसरे देशों को निर्यात करने से ज्यादा खुद आयात करेगा. इन सारे आंकड़ों के देखते हुए ये समझौता आत्मघाती साबित हो सकता है.
2016 में एशियन डिवलेपमेंट बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक, टीपीपी से अमेरिका की निकासी से पहले 400 अरब डॉलर तक का व्यापार होता था जबकि आरसीईपी का योगदान 260 अरब डॉलर के आस-पास होगा. इसे विश्व का सबसे बड़ा व्यापारिक समझौता कहा जा रहा है.
भारत का जिन भी देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता रहा है, उसमें से श्रीलंका को छोड़कर वह ज्यादातर नुकसान की स्थिति में ही है. भारत के एफटीए (मुक्त व्यापार समझौते) के सहयोगी देश भारत के बाजार का लाभ उठाने में आगे हैं जबकि भारत उन देशों में अपना निर्यात बढ़ाने में असफल रहा है.
आरसीईपी पर हस्ताक्षर होने के बाद चीन समेत सभी दूसरे देश सस्ती कीमतों पर अपना सामान भारतीय बाजार में बेचना शुरू करेंगे. इससे भारतीय बाजार के उत्पादकों को परेशानी होगी और सबसे पहले छोटी कंपनियां इसका शिकार बनेंगी. उदाहरण के तौर पर, भारत और बांग्लादेश के बीच मुक्त व्यापार का समझौता है. इसके चलते बांग्लादेश में बनने वाला कपड़ा सस्ती दरों पर भारत में उपलब्ध होता है. इसके चलते भारतीय कपड़ा उद्योग को बहुत नुकसान हुआ है. खेती के बाद दूसरे नंबर पर रोजगार प्रदान करने वाले कपड़ा उद्योग में करीब 10 लाख लोगों का रोजगार खत्म हो गया. आरसीईपी से इस तरह का असर सबसे ज्यादा डेयरी और स्टील उद्योग पर पड़ने के आसार हैं. विदेशों से सस्ते डेयरी उत्पाद और स्टील आने से भारतीय बाजार को नुकसान होगा.
रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत ने समझौते को लेकर अपनी कुछ मांगें रखी हैं जिसकी वजह से यह समझौता लंबित हो सकता है. अगर भारत 4 नवंबर को इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करता है तो ऐसी सूरत में या तो सभी देशों को निगोसिएशन के लिए और वक्त दिया जा सकता है या फिर भारत को छोड़कर बाकी देश इस समझौते पर आगे बढ़ सकते हैं.