आज लगभग सभी न्यूज़ चैनल्स पर चल रहे डिबेट के ट्रेंड पर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया, शीर्ष पत्रकार प्रतिनिधियों और सरकार को संज्ञान में लेने की जरूरत है। डिबेट में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा किसी से भी छुपी नहीं है फिर चाहे वो आम जनता हो या पत्रकार हो। बड़े दुःख की बात है कि टी वी चैनल की डिबेट में सवाल पूछ रहा पत्रकार स्वयं पत्रकार की भूमिका में नहीं होता।
यह मुद्दे को उठाने की बजाय उन दलों के प्रवक्ता के तौर पर दिखाई देते हैं जिनके प्रति इनकी निष्ठा होती है। पार्टी के लिए वफादारी का इस तरह राष्ट्रीय चैनल्स पर दिखना जहां पत्रकार की मर्यादा को गिराता है। वहीं सभी सैटेलाइट न्यूज चैनल की साख पर बट्टा लगा रहा है। आज आम आदमी यह समझ गया है कि टीवी पर आने वाली डिबेट उनके लिए कोई सार्थकता नहीं रखती है।
ऐसे डिबेट्स का सबसे ज्यादा असर देश के युवा पीढ़ी पर पड़ता है, जो कभी इन डिबेट्स को देखते हैं। ऐसे डिबेट्स युवाओं में सकारात्मक सोच विकसित करने की बजाए उन्हें हिंसक और नफरत की प्रवृति को बढ़ाने में सहायक हो रही है। आज युवा अपनी सोच का पूर्ण रूप से विकास नही कर पा रहे हैं।
मै स्वयं राजनीति, पत्रकारिता के क्षेत्र से लगभग दो दशकों से जुड़ा हूं। लेकिन आज पत्रकारिता के क्षेत्र में अा रही गिरावट से चिंतित हूँ। आखिर कहां जा रही है हमारी सोच। सभी प्रमुख दलों को अपने प्रवक्ताओं की सोच, भाषा शैली पर ध्यान देने की आवश्यकता है। वरना वो दिन दूर नहीं जब हम पूर्ण रूप से अराजक स्थिति में अा जाएंगे उसके बाद हम नहीं बच पाएंगे। आवश्यक है कि वक़्त रहते लोकतंत्र के सभी खंभों को दुरुस्त किया जाए ताकि हमारा लोकतंत्र
वास्तव में दुनिया का ” अतुल्य लोकतंत्र” बने।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)