हमने ऑक्सीजन सिलेंडर की काला बाज़ारी देखी ,हमने इंजेक्शन की कालाबाज़ारी देखी ,अब दवाईयों में भी आवश्यकता से अधिक मुनाफाखोरी देखने को मिल रही है।
जब लोग मौत से लड़ रहे थे तब फार्मा कम्पनियाँ समेत निजी डॉक्टर्स ,रिटेल मेडिकल संचालक और निजी अस्पतालों के लिये ये आपदा एक सूदखोरी का अवसर बन गयी ।कोविड 19 में रेमेडीसीवर इन्जेक्शन की बहुत जरूरत पड़ी तो इस बात का फायदा उठाते हुए कम्पनियों ने थोक मूल्य से 10 गुना ज्यादा बेचना शुरू कर दिया।
हेट्रो कम्पनी के एक इंजेक्शन की एमआरपी 5400 थी जबकि इसका होलसेल रेट 1900 रुपए था ।मतलब 6 इंजेक्शन का कोर्स 32 हज़ार में पड़ा।वही 800 एमआरपी वाले 6 कैडिला इंजेक्शन की कीमत सिर्फ 4800 रुपये थी। यानी दोनों दवाओं में 27600 रूपए का अंतर जबकि दोनो दवाओं में सिर्फ कम्पनी का ही फर्क है।
इसी तरह सिप्ला के एंटीबायोटिक इंजेक्शन मेरोपेनम के 10 डोज की कीमत 36000 है जबकि मायलन कम्पनी के इतने ही इंजेक्शन की कीमत सिर्फ 5000 रुपए है।यानि की 31000 का अंतर।
सवाल ये है कि दवा एक ही है तो दाम अलग कैसे-
दिल्ली ,मध्यप्रदेश ,राजस्थान ,गुजरात के दवा बाज़ारों में ब्रान्डिड के नाम वे फार्मा कम्पनिया इनके दाम पर 1000 से 1500 % तक बढ़ देती है।खुद बड़ी – बडी कम्पनिया एक ही दवा को जेनरिक और ब्रांड के नाम पर अलग – अलग दामों पर बेचती हैं।ब्रान्डिड में जहाँ 20% का मार्जिन कम्पनी उठाती है वहीं जेनरिक के नाम पर 80 फीसदी तक मार्जिन होता है।एक ही ब्रांड से अलग अलग नामों से दवाई निकालतें हैं जिनकी कीमत एमआरपी से 10 गुना से भी ज्यादा हो सकती है।