मानव द्वारा धान की पहचान, महत्व, उपयोगिता, उपभोग के महत्व को समझने के साथ ही कृषि का प्रारंभ हुआ। जंगलों में बसेरा करने वाले मानव ने कृषि को नदियों, झीलों, झरनों के किनारे अपनी सूझबूझ से विभिन्न प्रजातियों के बीजों का न केवल संरक्षण किया बल्कि उन्हें पैदा भी करने लगा। समय गुजरने के साथ ही समझ बनी, आवश्यकता बढी़ और फिर वह उनका संग्रह भी करने लगा। बीज बैंक घर- घर बनने लगे। यहीं से उस मानव ने प्रकृति के साथ,प्रकृति के संरक्षण में सहयोगी बनकर जीवित रहना सीखा। वर्तमान मानव से वह अपनी सामाजिक, आध्यात्मिक, वैज्ञानिक सोच में पूर्ण रुप से “भिन्न था, श्रेष्ठ था, परिपूर्ण था”। परिवारों के विस्तार के साथ ही उसमें एक से दूसरे स्थान पर पलायन की प्रवृत्ति पनपी। जंगलों में शेरों की दहाड़ के बीच रहते, बिना छेड़छाड़ किए छोटे – छोटे ज़मीन के टुकड़ों पर “मां प्रकृति” का अनुसरण करते खेतों का निर्माण किया। सैकड़ों वर्षों के अनुभव के आधार पर उसने कुआं, तलइयों का निर्माण किया और सामूहिक रूप से रहने लगा। जल, सूर्य, चन्द्रमा, तारों, पहाड़ों, नदियों, पेड़- पौधों की उपासना करता, पशु पक्षियों, वन्य जीवों, वनस्पति से लगाव रखने के साथ उनका संरक्षण व उपभोग भी करता रहा, लेकिन उन्हें कभी नष्ट न कर उनपर अपना एकाधिकार करने की नहीं सोची। “अपना श्रम, अपना बीजं, अपनी खाद, अपना पानी” की कहावत को चरितार्थ बनाए रखा। एक -एक बीज को सहेजता-संजोता, एक एक बूंद पानी का संग्रह करने में अपना योगदान देना उसने अपना पुनीत दायित्व ही नहीं कर्तव्य समझा। कृषि भूमि में विस्तार की आवश्यकता बढ़ने के साथ ही वह वस्तुओं का आपस में लेन-देन वस्तु के बदले वस्तु से करने लगा। गांव, गुवाडों का उदय हुआ। गाय, बैल, भैंस, गधा, घोड़े, ऊंट, हाथी आदि को सवारी व सामान ढोने के काम लेने लगा। यही नहीं आविष्कार कर, सुदृढ़ बना और सम्पन्न बना। कृषि और कुटीर उद्योगों की महत्ता व उपयोगिता समझ उसके विस्तार में सहयोगी बना और यह सब उसने प्रकृति के नजदीक रहकर उसके सानिध्य में उसका अभिन्न अंग बन कर किया।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था सम्पन्न अर्थव्यवस्थाओं में से एक रही है। इसमें कृषि व पशु धन की अहम भूमिका रही है। इस व्यवस्था में व्यक्ति, परिवार, समुदाय, शासक, प्रशासक सभी खुश और सम्पन्न थे। यही “भारत महान” का प्ररमुख कारक था । वैज्ञानिक शिक्षा, कला , संस्कार और संस्कृति की प्रधानता थी। पहली से दूसरी शताब्दी आते-आते कृषि क्षेत्र में वैज्ञानिक शोध होने लगे।पांचवीं शताब्दी में “नालन्दा व तक्षशिला” जैसे विश्वविद्यालयों में कृषि को लेकर शोध होने लगें जो आज की तुलना में बेहतर थे।
आदिमानव से लेकर 1960 के मध्य तक की यात्रा के काल में कृषि का महत्व सभी आजीविका के संसाधनों में श्रेष्ठ होने के साथ-साथ लाभदायक व पर्यावरण के अनुकूल था। उसे आम जन पसंद करने के साथ – साथ अपनाने में अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता था। ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि, पशु धन पर निर्भर रहते हुए भी सभी आय के स्रोतों में श्रेष्ठ थी।
देश में आजादी के बाद कृषि में आधुनिकता के नाम बहुतेरे बदलाव पैदा हुए। “हरित क्रांति” के पदार्पण के साथ ही कृषि बीजों के जिंसों में भी बदलाव हुए। परम्परागत बीज बैंक खत्म होने लगें, पानी का दोहन बढा़, कुएं सूखे, नहरों का प्रचलन बढ़ा, प्राकृतिक संसाधनों जल -जंगल और जमीन का ह्वास होने लगा। साथ ही साथ मानव अपने श्रम सेखुद को दूर करने लगा । परिणाम स्वरूप मशीनों ने काम करना प्रारंभ किया या इसे यूं कहें कि यंत्र पर आधारित होने लगा। सरकार द्वारा खाद,बीज,दवा, मशीन के साथ कृषि यंत्रों पर छूट देना प्रारंभ हुआ जो एक समय वर्ग विशेष के लिए उपयुक्त व सार्थक प्रयास था। परिणाम स्वरूप कृषि में लागत बढ़ने लगी, कृषि उत्पादन में आधुनिक किसान प्रजीवी बनकर हाईब्रिड बीजों, रासायनिक खादों, दवाओं का आदी बन गया। अपनी परम्परागत मान्यताओं, सिद्धांतों से दूर होता चला गया । इससे कृषि क्षेत्र में गिरावट आई। किसानों की दिनोंदिन कमजोर होती आर्थिक स्थिति और बढ़ते प्राकृतिक संसाधनों के शोषण को मद्देनजर रखते हुए सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव कर सब्सिडी बन्द कर देना न केवल बहुत हीआवश्यक है बल्कि यह समय की मांग भी है। यही नहीं परम्परागत कृषि पद्धति को अपनाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए, यह समय की आवश्यकता है। साथ ही कृषि भूमि व स्थान विशेष की मृदा के आधार पर फ़सल के न केवल उत्पादन को संरक्षण देकर किसान को बढा़वा देना चाहिए, बल्कि फसल का उचित मूल्य दिलाएं जाने पर भी सरकारों का फोकस होना चाहिए। अत्यधिक मुनाफा प्राप्त होने की स्थिति में किसान स्वयं तो समझदार बनेगा, सक्षम बनेगा, सुदृढ़ बनेगा ही, जल ,जंगल ,जमीन को संरक्षण भी देना अपना महति दायित्व समझेगा। अतः सरकार व किसानों को चाहिए कि वे परम्परागत कृषि पद्धति को अपनाना प्रारम्भ करें, उसे यथा संभव प्रोत्साहन दें, वहीं सरकार द्वारा भी उसे प्रोत्साहित करना चाहिए जिससे किसान तथा प्राकृतिक संसाधनों को बचाए रखा जा सके। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि प्रकृति के साथ जुड़कर और उसे यथासंभव संरक्षण प्रदान कर ही मानव जीवन की कल्पना की जा सकती है।
(लेखक जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता और समाज विज्ञानी हैं। यह उनके अपने निजी विचार हैं।)