आज जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करना इसलिए आवश्यक हो गया है क्योंकि जलवायु परिवर्तन 21वीं सदी में समूची दुनिया, पर्यावरण और प्राणी मात्र के जीने-खाने और अच्छी सेहत जैसे बुनियादी अधिकारों के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। तापमान में बेतहाशा बढ़ोतरी और मानसून के पैटर्न में आया बदलाव इसके प्रमुख कारण हैं। इसका घातक असर स्वास्थ्य, कृषि, उत्पादकता, पलायन और अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा। भारत जैसे देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। जो देश की कुल जीडीपी की कुल 2.6 फीसदी के बराबर होगी। जलवायु परिवर्तन से यहां एक हजार से ज्यादा हाॅटस्पाॅट बन गए हैं। इनमें रहने वाली देश की आधी आबादी सबसे ज्यादा प्रभावित होगीे। इससे फिलहाल मुकाबले की उम्मीद बेमानी है। इसका सबसे बड़ा कारण वह विकास है जिसके पीछे हम अंधाधुंध भागे चले जा रहे हैं। वही विनाश का सबसे अहम् कारण है। विडम्बना कि इस बाबत अंतर्राष्ट्रीय में दुनिया के नेताओं के बीच अक्सर खासे बहस-मुबाहसे होते हैं, धरती को इस वैश्विक आपदा से बचाने का संकल्प लेते है।
पारंपरिक खेती के उपयोग वाली मिट्टी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का स्रोत बनी रहती है। जबकि कृषि भूमि की मिट्टी इस्तेमाल में लाए जाने से पहले 20 से 60 फीसदी जैविक कार्बन खो देती है। औद्यौगिक क्रांति के बाद पारिस्थितिक तंत्र में आये बदलाव से मिट्टी में कार्बन की घटी मात्रा की क्षमता मौजूदा चुनौतियों के मद्देनजर बढ़ाये जाने की जरूरत है। आज दुनिया में 40 फीसदी बंजर हो चुकी जमीन से 6 फीसदी रेगिस्तान को छोड़कर बची 34 फीसदी जमीन पर चार अरब लोग निर्भर हैं। इस पर सूखा, यकायक ज्यादा बारिश, बाढ़, खारापन, रेतीली हवाओं आदि से खतरा और बढ़ रहा है। जबकि पहले से 11.3 करोड़ से अधिक भुखमरी, कुपोषण, 10 करोड़ जल संकट और 52 से 75 फीसदी देश भूमि क्षरण की मार झेल रहे हैं। 21 करोड़ ने विस्थापन का दंश झेला है। भूमि क्षरण से 2007 में 25 करोड़ प्रभावित थे, 2015 में वह 50 करोड़ जा पहुंचे। सदी के अंततक यह दोगुणे से ज्यादा हो जाएंगे।
भारत में 69 फीसदी शुष्क भूमि बंजर होने के कगार पर है। उस हालत में इस पर निर्भर लोगों के उपर पैदा खतरे को नकारा नहीं जा सकता। जबकि भूमि का क्षरण दस से बीस गुणा बढ़ गया है। भारत में गंगा बेसिन सबसे ज्यादा संवेदनशील है। जबकि पाकिस्तान में सिंधु बेसिन, चीन में यलो रिवर व चिनयुंग के मैदानी इलाकों से हरियाली पूरी तरह गायब हो चुकी है। यह खतरा एशिया के बाहर के देशों में भी बढ़ा है। उत्तरी अमरीका में यह आंकड़ा 60 फीसदी, ग्रीक, इटली, पुर्तगाल और फ्रांस में 16 से 62 फीसदी, उत्तरी भूमध्य सागरीय देशों में 33.8 फीसदी, स्पेन में 69 फीसदी, साइप्रस में यह खतरा 66 फीसदी जमीन पर मंडरा रहा है।
जबकि 54 में से 46 अफ्रीकी देश बुरी तरह इसकी जद में हैं। जैविक खेती कृषि पारिस्थितिकी और जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निबाहती है। इससे जमीन के पानी सोखने की क्षमता बढे़गी। उर्वरकों के इस्तेमाल के खतरों से भी बचा जा सकेगा। यह तभी संभव है जबकि भूमि प्रबंधन के तौर तरीकों में बदलाव हो, मिट्टी की कार्बन सोखने की क्षमता बढ़ाने हेतु गहराई तक जड़ें फैलाने वाले पौधे लगाये जायें। कृषि वानिकी, आर्गेनिक सामग्री के इस्तेमाल, फसल चक्र, मिट्टी की किस्म, भूप्रबंधन की वर्तमान और पूर्व में इस्तेमाल की गई पद्धतियों में बदलाव पर्यावरणीय स्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए किया जाये। इससे मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार होगा, मिट्टी की कार्बन सोखने की क्षमता अपेक्षित बिंदु तक पहुंचेगी, फसल उत्पादन में बढ़ोतरी होगी और किसानों को लम्बी अवधि में लाभ मिलेगा। जहां तक इस दिशा में किए गए प्रयासों का सवाल है, वे सारे प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। बीते साल मेड्रिड में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भी दुनिया के 11 विकसित देशों समेत 73 देशों ने माना है कि अब हमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के कटौती के लक्ष्यों में बढ़ोतरी करना ही होगा।
इसमें नीतिगत विलंब घातक हो सकता है। समय की मांग है कि खनिज ईंधन का इस्तेमाल पूरी तरह बंद किया जाये। उस पर अनुदान खत्म किया जाये। कार्बन उत्सर्जन पर जुर्माने की व्यवस्था हो। वैश्विक हरित कोष सक्रिय किया जाये। हरित तकनीक निशुल्क प्रदान की जाये। जलवायु वित प्रबंधन का सर्व सम्मत हल निकाला जाये। सरकारें इन मुद्दों पर शीघ्र निर्णय लें और उत्सर्जन के स्वैच्छिक लक्ष्यों में बढ़ोतरी करें। भारत भले जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर सजग देशों की पांत में खड़ा दिखाई दे रहा हो, लेकिन असलियत में कामयाबी हमसे कोसों दूर है। केवल नए उर्जा स्रोतों से 40 फीसदी बिजली हासिल कर लेने से कुछ नहीं होने वाला। दुख इस बात का है कि दुनिया इस भयावह संकट से इस सबके बावजूद बेखबर है। आज जरूरी यह है कि हम किसी भी हाल में विकास को पर्यावरण की कीमत पर प्रमुखता न दें। ऐसा न हो कि यह विकास ही मानव सभ्यता के विनाश का कारण बन जाए ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं चर्चित पर्यावरणविद् हैं।)